Thursday, November 24, 2011

उजाले की तालाश

हम चाभी ढूंढ़ते रह गए
दरवाजा तो हमेशा खुला ही था
हम अँधेरे में घूमते रह गए
जैसे उजाला तो कभी मिला ही नहीं था

यूँ तो होती है चांदनी रात भी मगर
हम अमावस से पैरवा और दूज तक ही पहुँच सके
माचिस भी साथ था, दिवा भी पास था
फिर भी रौशनी हम ला न सके

मिली कभी रौशनी भी अगर
हम अँधेरे से बाहर आ न सके
मंजिल तो पाई हमने भी मगर
मंजिल को अपनी पा न सके

हम चाभी ढूंढ़ते रह गए
दरवाजा तो हमेशा खुला ही था
क्यूँ चाभी ही ढूंढ़ते रह गए
एक धक्का ही जब काफी था |


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