निगाहें मंजिल पे कुछ इस कदर टिकी थी
कि रास्ते की परवाह मैं कर न सका
कभी झुका, कभी गिरा
ठोकरें खायी, शर्मिंदा भी होना पड़ा
पर चलता रहा
कई बार तो मुंह की भी खानी पड़ी
फिर भी बढ़ता रहा
हौसला अब भी बुलंद है
नज़रें अब भी वही पे रुकी हुई हैं
रास्ते भले ही धुंधले हो
मंजिल तो बिलकुल साफ़ है
थक के ही सही
देर से ही
प्यास तो बुझेगी ही
आलिंगन तो करूँगा ही तुम्हारा
रास्ते ढूंढ़ लूँ या बना लूँ
मेरी मंजिल, तुम तक पहुचुन्गा तो जरुर ।
कि रास्ते की परवाह मैं कर न सका
कभी झुका, कभी गिरा
ठोकरें खायी, शर्मिंदा भी होना पड़ा
पर चलता रहा
कई बार तो मुंह की भी खानी पड़ी
फिर भी बढ़ता रहा
हौसला अब भी बुलंद है
नज़रें अब भी वही पे रुकी हुई हैं
रास्ते भले ही धुंधले हो
मंजिल तो बिलकुल साफ़ है
थक के ही सही
देर से ही
प्यास तो बुझेगी ही
आलिंगन तो करूँगा ही तुम्हारा
रास्ते ढूंढ़ लूँ या बना लूँ
मेरी मंजिल, तुम तक पहुचुन्गा तो जरुर ।
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